कहानी – क़िबला काबा ईमान भी तू
राइटर – आज़म क़ादरी
मजहबों ने इश्क़ से कितना सीखा है नहीं जानता लेकिन इश्क़ को समझे बिना कोई भी मज़हब मुक़म्मल नहीं हो सकता। इश्क़ में यादें हों या यादों में इश्क़- धार दोनों में बहुत तेज़ होती है। मुझे याद है कि उन दिनों मेरे मोहल्ले में वो बड़ी सी पुन्छाले वाली पतंग शाम से ही मंडराने लगती थी, उसे इमामबाड़े से बाबू उड़ाया करता, उससे थोड़ी दूर पर संतोष महाराज अपनी मोटी सी चरखी लिए अपने मांझे पर गरूर किया करते। हम पतंग लूटते – लूटते कहाँ से कहाँ चले जाते। छोटे बाज़ार से गुजरते, जहाँ गोपी हल्बाई अपनी लोहे की कढ़ाई में दूध उबाला करता, फिर किसकंधा का मिट्टी का पहाड़ पड़ता, फिर रामलीला मैदान पार करते.. जहाँ हर साल रावण जलाया जाता था। उसके बाद, सिंगाड़े वाला तालाब और उसके आगे…. नहीं, नहीं उसके आगे नहीं जा पाऊंगा, अगर उसके आगे चला गया तो आना मुश्किल होगा।
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क्योंकि उसके आगे बन्नो बुआ का अमरूदों का बगीचा पड़ता है, जहाँ वो चारपाई डाले बैठी रहतीं। उनके हाँथ में एक रस्सी होती जिसके दूसरे सिरे पर एक टीन का कनस्तर पेड़ से लटका रहता। वो जब भी बजाती तो गुच्छे के गुच्छे हरियल तोते अमरुद के पेड़ों से ऐसे निकलते जैसे किसी ने मधुमक्खी के छत्ते में कंकड़ मारा हो। हम बुआ के पास जाते तो वो पहले तो हमसे सुआ खुतेल अमरुद बिनवाती, फिर उन्हीं में से खाने को भी देतीं कोई नाक मुंह सिकोड़ता तो कहतीं –
‘’तुम का जानो सुआ खुतेल, तोते की खाई बिहिं मीठी होती है।’’ हमें विरसे में पतंगे भी मिलीं थी, अमरुद भी, और यादें भी। ‘’लो मैं आख़िरकार फंस ही गया’’ कहा था न इसके आगे गया तो फिर आ नहीं पाऊंगा। उस अमरुद के बगीचे ने हमें अपनी यादों में घेर ही लिया जिसमें बन्नो बुआ रहतीं थीं। बन्नो बुआ किसकी क्या लगतीं थी ये मैं नहीं जानता लेकिन मेरी हर उम्र के लडके-लडकियाँ उन्हें बुआ ही बुलाते थे। उस ज़माने में ज़ुबान से कहे बोल ही रिश्ता थे जिन्हे लोग कहते ही नहीं मानते भी थे।
बात पुरानी है इतनी पुरानी की तब गाँव में कोई टेलीफोन नहीं था। अम्मी आँगन में बर्तन मांझ रहीं थी की तभी ड्योडी में लाठी की “खट खट खट” आवाज़ हुई, “बहू …! बहू ..! पकिस्तान वाले आ गए का ?’’ अपनी छड़ी से ड्योडी का पर्दा सरकाते हुए बन्नो बुआ आँगन में आ गयीं । तब मैं उन्हें जानता नहीं था। अम्मी ने जल्दी से अपने हाँथ धोए और सर पर दुपट्टा चढ़ाते हुए सलाम किया “अस्सलामोअल्य्कुम बन्नो बुआ, बैठिये।” अपनी छड़ी पर वज़न देते हए जब बन्नो बुआ चारपाई पर बैठीं तो उनके वज़न से ‘चर्र चों’ करती हुई चारपाई के पेट में गड्ढा पड़ गया था। अपने चेहरे पर सैंकडों झुर्रियाँ समेटें बुआ की आवाज़ में झुर्रियों की शिकन भी न थी। वो अभी भी माशाल्लाह से चुस्त दुरुस्त थी। अम्मी ने बुआ को पानदान थमाते हुए जबाब दिया, “पकिस्तान वाले मेहमान तो शायद जोहर की नमाज़ के बाद आयेंगे, बस हम भी खाने की तय्यारी में लगे थे, कीमा चढा दिया है पक जाए तो फिरनी बनानी बाकी है।’’
‘’हम्म ..हम तो इससे चले आये, उनसे मिलके अपने भईया का हाल चाल पता कर लेंगे, हो सकता मुन्ना ने कोई खत पहुचाया होय।” सरौते से छलिया कतरते हुए बन्नो बुआ बोली थीं। अपने भईया का नाम लेते ही जैसे उनकी आंखों गीले कंचों सी दिखने लगीं।
कैसी पशोपेश थी, बंटवारे ने अपने सगे-सम्बन्धियों को भी मेहमान बना दिया था। हिन्दुस्तान – पाकिस्तान बटबारे के दर्द से मेरा बुंदेलखंड का छोटा सा गाँव कोंच भी अछूता नहीं था। कोंच के काफी लोग बटबारे के समय पाकिस्तान चले गए थे, उनमें से बन्नो बुआ का छोटा भाई मुन्ना भी था। मोहल्ले में जब कोई कभी पकिस्तान से आता तो बन्नो बुआ उसके घर जा पहुचतीं, उन्हें उम्मीद रहती की मुन्ना का कोई ख़त तो आया ही होगा। गाँव में शायद ही कोई ऐसा परिवार हो जिसकी टूटी हुईं ईंटें पकिस्तान के किसी घर में न लगीं हों। सो कोई न कोई वहां से आता ही रहता था। न जाने क्यों बन्नो बुआ का भईया ही कभी नहीं आ पाया था? जब कोई वहाँ से आता तो बस वो आनेवाले के हाँथ से बन्नो बुआ को खत पहुँच दिया करता।
बन्नो बुआ के माँ बाप बहुत छोटे में ही चल बसे थे उस वक्त बन्नो बुआ की उम्र यही कोई पंद्रह साल की रही होगी और मुन्ना तो उनसे दो साल छोटा था। बिरसे में तीन बीघा का अमरूदों का बगीचा मिला था बन्नो बुआ को। मर्द सत्ता की कहानियों को तोड़ते हुये बन्नो ने वो किया जो कहानियों में नहीं होता। बन्नो बड़ी थी तो उसने बड़े होने का जिम्मा भी उठाया। अगर एक लिहाज से देंखे तो मेरी नज़र में बन्नो पहली ऐसी औरत थी जिसने, गाँव में वुमन इम्पावरमेंट की परिभाषा गड़ी।
कैसे छोटे से बागीचे में दिन रात मेहनत करके, बन्नो ने, अपने से दो साल छोटे भाई मुन्ना को मैट्रिक तक पढाया था। वो अपनी खुरपी से दिन रात गाजरें मूली बोतीं तो मुन्ना की किताब में अक्षर उगते। वो चिराग की लौ से जमा हो गयी कलोंच को शीशी में इकठ्ठा करतीं तो मुन्ना की क़लम से, स्याही में भीगे अक्षर निकलते। वो रात को चरखा कातकर सूत बुनतीं तो मुन्ना के जिस्म पर स्कूल की ड्रेस आती।
चरखा कातते कातते वो कभी कभी सपने भी बुन लिया करती थीं, सपने भी कोई परिस्तान के नहीं थे, वहीं के थे जो उस वक्त, उस उम्र की लड़कियाँ देखा करतीं थीं। तिनका तिनका करके बगीचे से फल और सब्जियां निकलते गए और और मुन्ना जमात दर जमात पढ़ाई करता गया। मैट्रिक पास करते ही मुन्ना की नौकरी सेन्ट्रल रेलवे में लग गयी थी, कितनी खुश हुई थी बन्नो सीधे दाता ख़ुर्रम की दरगाह पर चादर चढ़ाने गयीं थी। उस दिन बन्नो ने सारे मोहल्ले में मलीदे के लड्डू बांटे थे।
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