जहर बुझी हवा का कहर – a lung threat called COPD


सोनाली आचार्जी

शशांक मिश्र ने क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) के बारे में पहले कभी नहीं सुना था. पिछले दिसंबर में उनके 69 वर्षीय पिता को इस बीमारी से ग्रस्त पाया गया. दिल्ली में रहने वाले इस इंजीनियर का कहना है कि तबसे उनका परिवार मुश्किल में है क्योंकि ”पिता को सांस के लिए तड़पता देखने से बड़ी सजा क्या हो सकती है.’’ सीओपीडी के सामान्य लक्षणों में सांस फूलना, लगातार बलगम बनना और घरघराहट बना रहना शामिल है, जिससे कई रोगियों को नींद नहीं आ पाती. मिश्र कहते हैं, ”मेरे पिता अब रेस्पिरेटरी रिहैब के लिए जाते हैं, लेकिन दिल्ली में घर के पास केवल एक ही केंद्र है, इसलिए अप्वाइंटमेंट के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है.’’

पिछले वर्षों में देश में हजारों लोग इस परेशानी से गुजर चुके है. गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में श्वसन और नींद की दवा के निदेशक डॉ. विवेक सिंह कहते हैं, ”सीओपीडी कोविड या अस्थमा नहीं है. यह लाइलाज है. इसमें मरीज की श्वासनली अवरुद्ध हो जाती हैं और सांस लेना मुश्किल हो जाता है. गंभीर मामलों में तो दो कदम भी चलना कठिन हो जाता है.’’ इसके मरीजों की संख्या का पता लगाना तो मुश्किल है, लेकिन सीओपीडी के मामले पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रहे हैं.

सभी देश, काल, आयु और लिंग के लोगों की मृत्यु दर मापने में मददगार ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (जीबीडी) के मुताबिक, भारत में मृत्यु और विकलांगता में बीतते सालों (डीएएलवाइ) का दूसरा प्रमुख कारण सीओपीडी है. कई अध्ययनों, मृत्यु दर के आंकड़ों और पूरे भारत में सीओपीडी के खतरों के आधार पर, जीबीडी के 2019 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में सीओपीडी के अनुमानित 3.78 करोड़ मामले थे, जो कुल मौतों में से 9.5 फीसद का कारण बने, जबकि 1990 में 2.81 करोड़ मामले थे. पल्मोनोलॉजिस्ट और दिल्ली में एम्स के पूर्व निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया कहते हैं, ”यह मर्ज भारत में बढ़ रहा है. पहले धूम्रपान की वजह से बड़ी उम्र में सीओपीडी होने का खतरा हुआ करता था, लेकिन अब वायु प्रदूषण बड़ा कारण बनता जा रहा है.’’ 

इसकी गवाही 2019 के आंकड़े देते हैं. देश में सीओपीडी के 51 फीसद मामलों और इससे होने वाली 48 फीसद मौतों की वजहें धूम्रपान से इतर हैं. बेंगलूरू के फोर्टिस अस्पताल में पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. सुदर्शन के.एस. कहते हैं, ”सीओपीडी सांस के साथ अंदर प्रवेश करने वाले वायु कणों की वजह से होता है, जो श्वासनली में अटक जाते हैं. लंबे समय तक ऐसे कण अंदर जाते रहें तो श्वासनली में सूजन हो जाती है और रास्ता संकरा हो जाता है. इससे सांस लेने में कठिनाई होती है. कुछ मरीजों में ये कण फेफड़े की एल्वियोली को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं, जहां ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान होता है.’’ पल्मोनरी टीबी और खराब इलाज वाले अस्थमा सीओपीडी की दूसरी वजहें हैं और देश में दोनों ही बहुतायत में हैं.

जहरीली हवा का असर 

पिछले तीन वर्ष कोविड-19 और उसके अल्पकालिक और दीर्घकालिक असर पर जानकारियां जुटाने में बीत गए, लेकिन ज्ञान अब भी सीमित है, इसलिए डॉक्टर ठीक तरह नहीं जानते कि वायरस की वजह से सीओपीडी होती है या यह मर्ज को बढ़ाता है. दिल्ली में बीएलके-मैक्स सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल में  फेफड़े और श्वसन विभाग के प्रमुख तथा वरिष्ठ निदेशक डॉ. संदीप नायर कहते हैं, ”कोविड के बाद हमने रोगियों की श्वासनली में सीओपीडी जैसी रुकावट देखी है, लेकिन यह कहना जल्दबाजी होगी कि यह स्थायी है या नहीं. लेकिन कोविड मुख्य रूप से फेफड़ों का रोग है, इसलिए यह सीओपीडी के खतरे को बढ़ाएगा.’’

लेकिन वायु प्रदूषण से इसके सीधे संबंध और इसके बढ़ते जोखिम के क्लीनिकल और सैद्धांतिक साक्ष्य बढ़ते जा रहे हैं. 2019 में एटीएस जर्नल्स में प्रकाशित 51 लाख वयस्कों पर 15 साल के अध्ययन में पाया गया कि वायु प्रदूषण के कारण सीओपीडी की दर बढ़ जाती है. दिल्ली के अपोलो अस्पताल में पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. राजेश चावला कहते हैं, ”वायु प्रदूषण कई अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है, लेकिन फेफड़ा उसका पहला निशाना है, क्योंकि श्वासनली से उसका सीधा संपर्क है.’’

वायु प्रदूषण के मुख्य अवयव पार्टिकुलेट मैटर, सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और लेड (शीशा) श्वसन तंत्र में सूजन पैदा कर सकते हैं. जिन लोगों में पहले से ही सीओपीडी के लक्षण हैं, बढ़ता वायु प्रदूषण उनके लिए अक्सर इमरजेंसी का कारण बन जाता है. 1992 में ही पबमेड के एक अध्ययन में आम लोगों में वायु कणों के कारण हुए सीओपीडी से मौत के बढ़ते खतरे को दर्ज किया गया. इसमें मृत्यु की वजहों में तीन गुना वृद्धि आंकी गई.

डॉक्टरों का मानना है कि यह आज भी सच है. दिल्ली स्थित रिटायर बैंकर कल्पना मित्रा को पांच साल पहले 65 वर्ष की उम्र में सीओपीडी रोग का पता चला. वे कहती हैं, ”जिस समय दिल्ली में प्रदूषण अधिक होता है, मुझे पता है कि मैं एक या दो सप्ताह के लिए ऑक्सीजन मास्क के साथ अस्पताल में रहूंगी. ऐसा लगातार तीन साल से हो रहा है. मेरे बच्चे चाहते हैं कि मैं शहर छोड़ दूं, लेकिन इस उम्र में दूसरी जगह जाना भी उतना ही मुश्किल है.

हल यही है कि प्रदूषण का स्तर कम होने तक चौबीसों घंटे एयर फिल्टर वाले कमरे में बंद रहें.’’ डॉक्टर भी प्रदूषित हवा में व्यायाम करने और बाहर निकलने की सख्त मनाही करते हैं, क्योंकि प्रमुख शहरों में एक्यूआइ (वायु गुणवत्ता सूचकांक) खतरनाक स्तर पर है. मुंबई के वाशी स्थित फोर्टिस अस्पताल में पल्मोनोलॉजी के प्रमुख डॉ. प्रशांत छाजेड़ कहते हैं, ”प्रदूषण बढ़ने पर खुले में व्यायाम न करें. अच्छी गुणवत्ता वाला मास्क पहनें और एयर फिल्टर प्रयोग करें’’

लोगों के सांस लेने की दिक्कतों से वाकिफ केंद्र सरकार राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (एनसीएपी) में लगभग 6,900 करोड़ रुपए की धनराशि डाल रही है. एनसीएपी के दायरे में 131 शहर हैं. इसका लक्ष्य 2017 को आधार वर्ष मानकर अगले वर्ष तक वायु प्रदूषण को 20-30 फीसद तक कम करना है. काम कठिन है. 57 शहरों में निरंतर वायु गुणवत्ता निगरानी स्टेशनों से उपलब्ध डेटा के जरिए देश के स्वच्छ वायु कार्यक्रम को ट्रैक करने वाले एनसीएपी ट्रैकर का दिसंबर 2022 का विश्लेषण चिंताजनक रुझान दिखाता है.

यह ट्रैकर, क्लाइमेट ट्रेंड्स और रेस्पिरर लिविंग साइंसेज की संयुक्त परियोजना है. दिल्ली को पिछले साल पीएम2.5 सांद्रता 99.71 यूजी/एम3 के वार्षिक औसत से सबसे अधिक प्रदूषित पाया गया था. यह केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा निर्धारित 40 यूजी/एम3 की सुरक्षित सीमा से 2.5 गुना अधिक था. यहां तक कि 10 सबसे कम प्रदूषित शहरों में से नौ में पीएम10 का स्तर सीपीसीबी द्वारा निर्धारित सुरक्षित सीमा को पार कर गया. 2019 में सबसे कम प्रदूषित शहरों में भी 2022 में वायु गुणवत्ता स्तर और रैंकिंग में गिरावट देखी गई. मुंबई एक उदाहरण था. नवंबर 2022 से इस महानगर में 36 दिन ‘खराब’ एक्यूआइ वाले थे, जो कि सीपीसीबी डेटा के अनुसार पिछले चार वर्षों में सबसे बुरी स्थिति थी. 

जानकारों का कहना है कि ऐसे उच्च स्तर के प्रदूषकों का असर आने वाले वर्षों में दिखेगा. मुंबई स्थित पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. सार्थक रस्तोगी कहते हैं, ”यह सिर्फ तथ्य नहीं है कि प्रदूषण अधिक है और यह परेशान कर रहा है. सीओपीडी रोगियों की बढ़ती संख्या के साथ हमारे सामने इलाज संबंधी चुनौतियां भी हैं. सीओपीडी के बारे में अधिक जागरूकता होती, तो इसका समय पर इलाज संभव होता. अभी, हमें गंभीर मामले ही मिल रहे हैं. ऐसे रोगियों के लिए चिकित्सकीय सुविधाएं कम होती हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें जीवन भर दवाओं पर रहना पड़ता है. कुछ की हालत इतनी खराब होती है कि उन्हें स्टेरॉयड और अस्पताल में भर्ती होना पड़ता है.’’

मर्ज का पता लगना ही एक चुनौती

अधिकांश रोगी शुरू में समझ ही नहीं पाते कि उन्हें सीओपीडी है क्योंकि इसके लक्षण मुख्यत: थकान और कमजोरी के तौर पर नजर आते हैं जिन्हें आमतौर पर वृद्धावस्था का लक्षण माना जाता है. दिल्ली के पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ. आशीष रोहतगी कहते हैं, ”कई रोगी बताते हैं कि उन्हें थकान महसूस होती है और चलने का मन नहीं करता, या उनके शरीर में दर्द रहता है. ऐसे शुरुआती लक्षणों वाले बहुत कम रोगी सीओपीडी डॉक्टरों के पास आते हैं जिन्हें सांस लेने में दिक्कत हो रही होती है. डॉक्टरों के लिए भी यह महत्वपूर्ण है कि वे बढ़ते श्वसन रोगों से जुड़े अन्य लक्षणों के बारे में जागरूक हों.’’

आमतौर पर पल्मोनरी फंक्शन टेस्ट (पीएफटी) से सीओपीडी की जांच होती है. डॉ. चावला कहते हैं, ”मुश्किल ये भी है कि सीओपीडी के शुरुआती लक्षणों के बावजूद पीएफ टेस्ट सामान्य हो सकता है. रोग होने के  कुछ समय बाद ही इसका पता लग पाना संभव होता है. ज्यादातर 50 से ज्यादा उम्र वाली आबादी इसकी चपेट में होती है, और सांस लेने के दौरान खरखराहट होने या बुरी तरह सांस नहीं फूलने की स्थिति आने तक रोग का पता ही नहीं चल पाता.’’

कभी-कभी, गर्मी के दिनों में सहनशक्ति घटने या ज्यादा प्रदूषण वाले माहौल, खासकर सर्दियों में सांस फूलने जैसे मामूली लक्षण भी सीओपीडी के संकेत हो सकते हैं. डॉ. छाजड़ कहते हैं, ”मरीज यह जानकर हैरान रह जाते हैं कि वे अचानक एक गंभीर बीमारी की चपेट में आ गए हैं जबकि लक्षण मामूली ही थे. सबसे बेहतर उपाय यही है कि नियमित तौर पर डॉक्टरों से परामर्श लेते रहें, खासकर अगर आप धूम्रपान करते रहे हों या फिर लंबे समय से प्रदूषित हवा वाली जगह पर रह रहे हों.’’

बीमारी का देर से पता लगना भी इलाज को मुश्किल बना देता है. डॉ. रोहतगी कहते हैं, ”यदि समय पर पता चल जाए तो रोग को बढ़ने से रोक सकते हैं. लेकिन आमतौर पर जब तक मरीज हमारे पास आते हैं, रोग इतना पुराना हो चुका होता है कि फेफड़ों का 10-20 फीसद हिस्सा काम नहीं कर रहा होता है.’’

सीओपीडी के साथ जीना

सांस फूलने की गंभीरता के आधार पर इसे तीन श्रेणियों में रखा जाता है. डॉक्टरों के मुताबिक सबसे खराब स्थिति स्टेज-3 होती है, जिसमें नीचे बैठने-उठने भर में सांस फूल सकती है. छाती और गले में लगातार बलगम बनना भी लोगों को निढाल कर देता है. मित्रा बताती हैं, ”मुझे घंटों बलगम थूकना पड़ता है और इसके छाती में जम जाने से इतना भारीपन हो जाता है कि सांस लेना दूभर होता है.’’

कुछ मामलों में श्वासनली इतनी सिकुड़ जाती है कि थूक के साथ बलगम के बाहर निकलने की गुंजाइश ही नहीं बचती. सीओपीडी के रोगियों को अन्य वाइरस से होने वाले सांस के रोगों का जोखिम भी बहुत ज्यादा होता है. डॉ. नायर कहते हैं, ”यह बहुत दर्दनाक स्थिति है और रोगी पर शारीरिक के साथ-साथ गहरा मनोवैज्ञानिक असर भी डालती है. आखिरकार, जीवन तो सांसों पर ही टिका है.’’

सीओपीडी मरीजों के पास आराम से सांस लेने के लिए दवा के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. हालांकि, स्टेरॉयड केवल उन लोगों को दिया जाता है जिन्हें गंभीर स्थिति के कारण अस्पताल में भर्ती कराने की नौबत आ जाती है. इलाज में उपयोग होने वाली दवाओं की दो प्रमुख श्रेणियां हैं—लामा या लंबे समय तक कारगर मस्कैरेनिक एंटागनिस्ट, और लाबा यानी दीर्घकालिक बीटा एगोनिस्ट. आमतौर पर इन्हें इनहेलर्स के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.

ये श्वसन मार्ग को खोलकर, रोगियों के लिए सांस लेना आसान बनाती हैं. यह अलग बात है कि ज्यादातर रोगी डॉक्टरों के पास तब पहुंचते हैं जब सिर्फ ये दवाएं काफी नहीं रह जातीं और उन्हें ऐंटीबायोटिक्स या स्टेरॉयड भी देने पड़ जाते हैं. डॉ. रोहतगी कहते हैं, ”ज्यादातर मरीज संक्रमण या सांस फूलने की समस्या बहुत ज्यादा बढ़ने के बाद ही आते हैं. यदि वे सीओपीडी की शुरुआत होने के समय आ जाएं तो लामा और लाबा दवाओं से ही उनकी स्थिति सुधारी जा सकती है.’’

सीओपीडी के साथ जीना आसान बनाने के लिए दवा के साथ-साथ नियमित तौर पर रेस्पिरटरी रिहैबिलिटेशन की जरूरत पड़ती है. डॉ. सुदर्शन का कहना है, ”कुछ अस्पतालों में ऐसी सुविधाएं हैं. इन्हें बढ़ाना तत्कालिक आवश्यकता है क्योंकि मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है.’’ रेस्पिरटरी रिहैब में रोगियों को ऐसे व्यायाम सिखाए जाते हैं जो फेफड़ों को मजबूत करते हैं. डॉ. रोहतगी कहते हैं, ”मैं तैराकी, साइकिलिंग और तेज चलने की सलाह देता हूं क्योंकि यह सब किसी भी उम्र में शरीर के अन्य अंगों पर प्रतिकूल असर डाले बिना किया जा सकता है. हालांकि, मरीज को व्यायाम चिकित्सकीय उपचार के बाद ही करना चाहिए.’’

सीओपीडी रोगियों के रिहैबिलिटेशन में गहरी सांस लेना या गले में जमा बलगम निकालने जैसे व्यायाम शामिल हैं. डॉ. नायर कहते हैं, ”बीमारी से उबरने में रिहैबिलिटेशन की अहम भूमिका है. रोगियों तक इसकी पहुंच न होने पर इलाज करना काफी कठिन हो सकता है. ठीक से रिहैब सुविधाएं मिलें तो रोगी जॉगिंग भी शुरू कर सकते हैं.’’ डॉक्टर सख्ती से आगाह भी करते हैं कि इंटरनेट पर मौजूद वीडियो देखकर श्वसन संबंधी व्यायाम न करें.

क्योंकि यह पता लगाना मुश्किल है कि वीडियो में व्यायाम का सही तरीका दिखाया गया है या नहीं. पहले कुछ सत्र विशेषज्ञों की निगरानी में करके सीखा जा सकता है कि श्वसन संबंधी व्यायाम कैसे करें कि फेफड़ों पर अनावश्यक दबाव न पड़े. डॉ. नायर कहते हैं, ‘अस्पताल सिर्फ दवाएं देने के लिए नहीं होते.

हमारे सेंटर में सीओपीडी मरीजों के लिए रिहैब प्रोग्राम है, जिसमें उन्हें इसी बीमारी से पी‌ड़ित अन्य रोगियों के सहायता समूह के साथ-साथ परामर्शदाताओं से भी जोड़ा जाता है, क्योंकि यह बीमारी मानसिक दबाव भी बढ़ाती है.’’ रोगियों को यह सिखाना भी जरूरी है कि उन्हें कब और कितनी मात्रा में ऑक्सीजन लेनी है और घर पर ऑक्सीजन सिलेंडर को सुरक्षित रूप से कैसे रखना है. मिश्र कहते हैं, ”परिवार के सदस्य को सीओपीडी होने पर आपको भी अपनी दिनचर्या बदलनी पड़ती है. घर में ऑक्सीजन सिलेंडर रखना भी खतरनाक होता है क्योंकि जरा-सी लापरवाही से उसमें आग लग सकती है.’’

सीओपीडी मरीजों के लिए मनोवैज्ञानिक परामर्श अब उपचार का एक हिस्सा बनता जा रहा है. डॉक्टर मानते हैं कि यह बेहद महत्वपूर्ण है. डॉ. रोहतगी कहते हैं, ”मरीजों की मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं, और आराम से कहीं भी आने-जाने में सक्षम नहीं रह जाने के कारण वे अकेले पडऩे लगते हैं. सोचिए, आप सांस ही न ले पा रहे हों तो स्थिति कितनी विकट होगी.’’

कई अस्पताल श्वसन संबंधी फिजियोथेरेपी के लिए सी रोगियों को छोटे-छोटे समूहों में बुलाते हैं ताकि एक-दूसरे से मिलकर उन्हें अपनी बीमारी से उबरने का संबल और प्रोत्साहन मिले. डॉ. सिंह कहते हैं, ‘समान चुनौतियों से जूझ रहे रोगियों का साथ मिलकर प्रयास करना मददगार साबित होता है क्योंकि मानसिक तनाव स्वास्थ्य सुधार में बाधा बन सकता है.’’

सीओपीडी, मरीजों के साथ-साथ उनके परिवारों के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं है. मसलन मिश्र बताते हैं कि कैसे उन सभी को अपने पिता से मिलने से पहले मास्क पहनना होता है और हाथ धोने होते हैं. वे कहते हैं, ‘हमारे संपर्क में आने से पिता के ज्यादा बीमार होने का जोखिम है.’

काफी हद तक स्थिति कोविड जैसी हो जाती है—जैसे आजीवन दवाओं पर निर्भरता, रेस्पिरेटरी रिहैब की जरूरत, मानसिक तनाव बढ़ना, कभी भी अस्पताल में भर्ती होने की नौबत आना, फेफड़ों में संक्रमण, सांस फूलना और रोग प्रतिरोधक क्षमता घटना. थोड़े-बहुत अंतर के साथ यह जीवनभर साथ न छोड़ने वाली एक बीमारी है.



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